राज्यसभा की रचना या संगठन

राज्यसभा की रचना या संगठन (Composition of Rajya Sabha)

राज्यसभा भारतीय संसद का द्वितीय या उच्च सदन है। इसे लोकसभा की तुलना में कम शक्तियां प्राप्त हैं, लेकिन फिर भी इसका अपना महत्व और उपयोगिता है:
सदस्य संख्या और निर्वाचन पद्धति:- राज्यसभा के सदस्यों की अधिक से अधिक संख्या 250 हो सकती है, परन्तु वर्तमान समय में यह संख्या 245 ही है। इनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाते हैं। ये ऐसे व्यक्ति होते हैं जिन्हें कला, साहित्य, विज्ञान, समाज-सेवा या सहकारिता के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या अनुभव प्राप्त हो। शेष सदस्य संघ की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करते हैं और ये जनता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते हैं। इन सदस्यों का चुनाव एकल संक्रमणीय मत तथा आनुपातिक प्रतिनिधित्व की पद्धति के अनुसार संघ के विभिन्न राज्यों और संघीय क्षेत्रों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है। जिन क्षेत्रों में विधानसभाएं नहीं होती, वहां पर राज्यसभा के सदस्यों के चुनाव के लिए विशेष निर्वाचक मण्डल गठित किये जाते हैं।
हमारे संविधान में इकाइयों को राज्सभा में प्रतिनिधित्व जनसंख्या के आधार पर दिया गया है और अमरीका के समान भारत में संघ की छोटी-बड़ी सभी इकाइयों को द्वितीय सदन में समान प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। इस सम्बन्ध में संविधान यह व्यवस्था करता है कि एक राज्य की जनसंख्या के प्रथम दस लाख पर एक और उसके बाद प्रत्येक 20 लाख पर एक के हिसाब से राज्य को राज्यसभा में प्रतिनिधित्व प्राप्त होगा।
वर्तमान समय में विभिन्न राज्यों और संघीय क्षेत्रों को राज्यसभा में निम्न प्रकार प्रतिनिधित्व प्राप्त है:

राज्यसभा सदस्यों की योग्यताएं:-

राज्यसभा के सदस्यों के लिए वे ही योग्यताएं हैं जो लोकसभा के सदस्यों के लिए हैं। अन्तर केवल यह है कि लोकसभा की सदस्यता के लिए 25 वर्ष की आयु किन्तु राज्यसभा की सदस्यता के लिए 30 वर्ष या इससे अधिक की आयु होना आवश्यक है।
राज्यसभा के सदस्य के लिए जरूरी है कि उसका नाम उस राज्य के किसी निर्वाचन क्षेत्र की सूची में हो, जिस राज्य से वह राज्यसभा का चुनाव लड़ना चाहता है।

सदस्यों का कार्यकाल:-

राज्यसभा एक स्थायी सदन है जो कभी भंग नहीं होता। इसके सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष है और राज्यसभा के एक-तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष बाद सेवानिवृत्त हो जाते हैं।
    राज्यसभा के पदाधिकारी:- राज्यसभा के दो प्रमुख पदाधिकारी होते हैं: सभापति और उपसभापति। भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है और उसका कार्यकाल 5 वर्ष है। राज्यसभा अपने सदस्यों में से किसी एक को 6 वर्ष के लिए उपसभापति निर्वाचित करती है। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति सभापति के कर्तव्यों का पालन करता है तथा उपसभापति का स्थान भी रिक्त हो, तब राज्यसभा का ऐसा सदस्य जिसे राष्ट्रपति इस कार्य के लिए नियुक्त करे, इस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा। उपसभापति को राज्यसभा के सदस्यों द्वारा अपने कुल बहुमत से प्रस्ताव पारित कर हटाया जा सकता है।
राज्यसभा के सभापति के अधिकार तथा कर्तव्य वही है जो कि लोकसभा के अध्यक्ष के हैं। अन्तर केवल यह है कि राज्यसभा के सभापति को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी विधेयक को वित्त विधेयक घोषित कर सके।

दोनों सदनों पर समान रूप से लागू होने वाली बातें
     

संसद सदस्यों के विशेषाधिकार :- संविधान के अनुच्छेद 105 में संसद के सदनों तथा संसद सदस्यों के विशेषाधिकारों का उल्लेख किया गया है। वे विशेषाधिकार इस प्रकार हैं:

  1. संसद के सदस्यों को सदन में विचार अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता होगी।
  2. संसद में या उसकी किसी समिति में कही गई किसी बात या दिये गये किसी मत के सम्बन्ध में न्यायालय की कार्यवाही से उन्मुक्ति।
  3. न्यायालयों को संसद की कार्यवाही की जांच करने का निषेध।
  4. सभा के सत्र के दौरान तथा उसके 40 दिन पहले और 40 दिन बाद तक दीवानी मामलों में सदस्यों की गिरफ्तारी से उन्मुक्ति।
  5. किसी सदस्य की गिरफ्तारी, निरोध कारावास तथा रिहाई के सम्बन्ध में तुरन्त सूचना प्राप्त करने का सदन को अधिकार है।
  6. संसद सदस्यों को जूरी सदस्यों के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता है।

संसद विधि के आधार पर संसद सदस्यों को अन्य और अधिकार तथा उन्मुक्तियां प्रदान कर सकती है।
विशेष बात यह है कि प्रत्येक सदन स्वयं अपने विशेषाधिकारों का रक्षक है। सदन न केवल किसी ऐसे विषय का एकमात्र निर्णायक है जो किसी प्रकार विशेषाधिकार को भंग करता हो, वरन् वह उचित समझे तो किसी भी ऐसे व्यक्ति को कारावास का दण्ड दे सकता है या उसकी भत्र्सना कर सकता है, जिसे वह सदन के अवमान का दोषी समझता है।

  • संसद सदस्यों का वेतन तथा भत्ता:- अगस्त 2001 में संसद द्वारा पारित ’संसद-सदस्यों का वेतन-भत्ता तथा पेन्शन भत्ता संशोधन अधिनियम, 2001’ के अनुसार संसद के दोनों सदनों के प्रत्येक सदस्य को 12 हजार रुपये मासिक वेतन, 10,000 रु. मासिक निर्वाचन क्षेत्र भत्ता तथा 14,000 रु. मासिक कार्यालय खर्च प्राप्त होता है। उन्हें अधिवेशन के दिनों, समितियों, आदि की बैठकों में भाग लेने और अन्य सम्बद्ध कार्यों के लिए 500 रु. प्रतिदिन के हिसाब से भत्ता मिलता है।
  •     इसके अलावा हर सांसद को दो टेलिफोन सेट (एक दिल्ली और एक अपने संसदीय क्षेत्र के लिए) मुफ्त मिलते हैं जिस पर वह सालाना एक लाख बीस हजार की मुफ्त काल कर सकता है। साल में उसे 50 हजार यूनिट मुफ्त बिजली मिलती है। हर सांसद को अपनी पत्नी अथवा किसी भी एक व्यक्ति के साथ देश में कहीं भी वातानुकूलित प्रथम श्रेणी की मुफ्त रेल यात्रा करने की सुविधा प्राप्त है। वर्ष भर में उसे हवाई जहाज के 32 टिकट मुफ्त मिलते हैं। अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर वह प्रतिवर्ष 100 टेलिफोन और 160 एलपीजी कनेक्शन दिला सकता है। वाहन खरीदने के लिए बिना ब्याज दिए ऋण की सुविधा भी उसे मिलती है। 30 हजार रु. तक का मुफ्त फर्नीचर पाने का भी उसे हक है। चार साल सांसद रहने के बाद उसे जीवनभर पेंशन भी मिलती है।
  • प्रति वर्ष दो करोड़ के विकास कार्यों के सुझाव देने का अधिकार:- इन सबके अतिरिक्त ’स्थानीय क्षेत्र विकास योजना’ के अन्तर्गत प्रत्येक सांसद को प्रतिवर्ष दो करोड़ रु. के विकास कार्यों के सुझाव देने का अधिकार प्राप्त है। इस योजना के अन्तर्गत लोकसभा सदस्य अपने निर्वाचन क्षेत्र में तथा राज्यसभा सदस्य अपने राज्य के चुनिंदा क्षेत्र में अपनी पसन्द की विकासपरक योजनाएं सुझा सकेंगे। कोई भी परियोजना 10 लाख रुपये से ज्यादा की नहीं होगी तथा एक वर्ष में अधिकतम दो करोड़ रूपये तक की योजनाएं सुझाई जा सकेंगी। संसद सदस्य सुझाव देंगे और योजना का क्रियान्वयन सरकारी एजेन्सियों के माध्यम से ही होगा।
  •     23 दिसम्बर, 1993 को जब पहली बार यह योजना घोषित की गई, तब सांसद को प्रति वर्ष एक करोड़ रु. के विकास कार्यों के सुझाव देने का अधिकार दिया गया था, योजना के 5 वर्ष पूरे हो जाने पर धनराशि को बढ़ाकर दो करोड़ कर दिया गया है।

  सदस्यों द्वारा शपथ ग्रहण:-

प्रत्येक संसद सदस्य को अपना पद ग्रहण करने पर राष्ट्रपति या राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त व्यक्ति के सम्मुख संविधान और देश की प्रभुता के प्रति श्रद्धा और निष्ठा की शपथ लेनी होती है। यह शपथ इस प्रकार है ’’मैं ………… जो लोकसभा (अथवा राज्यसभा) का सदस्य निर्वाचित या मनोनीत हुआ हूं, ईश्वर की शपथ लेता हूं (या सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूं) कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की प्रभुता और अखण्डता अक्षुण्ण रखूंगा तथा जिस पद को ग्रहण करने वाला हूं उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक पालन करूंगा।
सदस्यों की सदस्यता का अन्त:-निम्न परिस्थितियों में संसद सदस्य की सदस्यता का अन्त हो जाता है:

  1. यदि कोई व्यक्ति संसद के दोनों सदनों का सदस्य निर्वाचित हो जाता है, तो उसे एक सदन से त्यागपत्र देना होता है।
  2. इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति संसद के किसी एक सदन का और साथ ही राज्य विधानमण्डल का सदस्य चुन लिया जाता है और एक निर्धारित अवधि के भीतर राज्य के विधानमण्डल की सदस्यता का त्याग नहीं करता तो उसकी संसद की सदस्यता समाप्त हो जाती है।
  3. यदि कोई सदस्य सदन की बैठकों में लगातार 60 दिन तक सदन की अनुमति के बिना अनुपस्थित रहता है तो उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है।
  4. यदि किसी व्यक्ति में संसद की सदस्यता प्राप्त कर चुकने के बाद संसद सदस्य के लिए निर्धारित योग्यता नहीं रह जाती है या कोई अयोग्यता पैदा हो जाती है तो वह सदस्य नहीं रह जाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई सदस्य किसी अन्य देश की नागरिकता स्वीकार कर लेता है या सरकारी नौकरी कर लेता है या दिवालिया अथवा पागल हो जाता है तो सदस्य नहीं रह जाता है।
  5. ’52वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1985’ के मतानुसार निम्न परिस्थितियों में भी संसद सदस्य की सदस्यता समाप्त हो जायेगी:
  6. यदि कोई सदस्य अपने दल या उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति की अनुमति के बिना सदन में उसके किसी निर्देश के प्रतिकूल मतदान करे या मतदान में अनुपस्थित रहे। परन्तु यदि 15 दिन के अन्दर दल उसे निर्देश के उल्लंघन के लिए क्षमा कर दे तो उसकी सदस्यता समाप्त नहीं होगी।
  7. यदि निर्दलीय रूप में निर्वाचित संसद सदस्य किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाय।
  8. यदि कोई मनोनीत सदस्य शपथ लेने के 6 माह के बाद की अवधि में किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाय।

गणपूर्ति :-

लोकसभा अथवा राज्यसभा, दोनों के लिए गणपूर्ति अपनी सदस्य संख्या का 1/10 है अर्थात् जब तक सदन के 1/10 सदस्य उपस्थित न हों सम्बन्धित सदन की बैठक नहीं हो सकती।
संसद में सामान्य प्रक्रिया (संसदीय प्रक्रिया):- संविधान के अनुच्छेद 118  के अनुसार, ’’इस संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुए संसद का प्रत्येक सदन अपनी प्रक्रिया और अपने कार्य संचालन के विनियमन के लिए नियम बना सकेगा।’’ इस प्रकार संसद के प्रत्येक सदन द्वारा स्वयं अपनी प्रक्रिया और कार्यसंचालन के नियम निश्चित किये जाते हैं और एक बार नियम निश्चित करने के बाद भी सम्बन्धित सदन द्वारा इन नियमों में परिवर्तन किया जा सकता है। वर्तमान समय में संसदीय प्रक्रिया और कामकाज के प्रतिपादन की व्यवस्था निम्न प्रकार है:

प्रश्न काल :

-सामान्यतया सदन की बैठक 11 बजे से 1 बजे तक और संध्या में 2 बजे से 6 बजे तक होती है आमतौर पर प्रतिदिन सदन की कार्यवाही का प्रथम घण्टा ’प्रश्न काल’ होता है। प्रश्न काल सदन की कार्यवाही का बहुत दिलचस्प और उत्तेजना से भरा हुआ समय होता है क्योंकि इस काल में प्रश्नों के माध्यम से राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय, सभी बातों के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त की जा सकती है। प्रश्न तीन प्रकार के होते हैं-(1) तारांकित, (2) अतारांकित और (3) अल्प सूचना प्रश्न। तारांकित प्रश्न द्वारा सदस्य सदन में मौखिक उत्तर चाहता है। अतारांकित प्रश्न की स्थिति में सम्बद्ध मन्त्री द्वारा सदन के पटल पर लिखित उत्तर रखा जाता है। अल्प सूचना प्रश्न का सम्बन्ध लोक महत्व के किसी तात्कालिक मामले से होता है जो किसी प्रश्न के लिए निर्धारित समय की सूचना के बजाय कम समय की सचना पर पूछा जा सकता है।

पूरक प्रश्न:-

प्रश्न का मन्त्री के द्वारा जो उत्तर दिया जाता है, उस उत्तर की किसी बात को लेकर जो प्रश्न पूछा जाता है, उसे ’पूरक प्रश्न’ कहते हैं। आवश्यकता पड़ने पर इस प्रकार के ’पूरक प्रश्न’ पूछे जा सकते हैं और पूछे जाते हैं। विभिन्न मन्त्रालयों से सम्बन्धित पूछे जाने वाले प्रश्नों के लिए सप्ताह में अलग-अलग दिन निर्धारित होते हैं।

शून्य काल :-

सामान्यतया प्रश्न काल के बाद लगभग 30 मिनट का समय ’शून्य काल’ के रूप में रखा जाता है। इसे ’शून्य काल’ नाम इसलिए दिया गया है कि इस समय में ’विचार के लिए विषय’ पहले से निर्धारित नहीं होता। इस समय में बिना पूर्व सूचना के सदस्य द्वारा सार्वजनिक हित का ऐसा कोई भी प्रश्न उठाया जा सकता है जिस पर तुरन्त विचार आवश्यक समझा जाय। व्यवहार के अन्तर्गत ’शून्य काल’ में अपेक्षाकृत अधिक अव्यवस्था के दृश्य देखे गये हैं और इसलिए वर्तमान प्रवृत्ति ’शून्य काल’ को समाप्त करने की है।
सामान्यतया सदन द्वारा सप्ताह में पांच दिन, सोमवार से शुक्रवार कार्य किया जाता है। सामान्यतया सप्ताह के प्रथम चार दिन (सोमवार से गुरुवार) सरकारी कामकाज अर्थात् शासन द्वारा प्रस्तावित विधेयकों आदि पर विचार होता है। शुक्रवार को लगभग ढाई घण्टे का समय गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा प्रस्तावित विधेयकों और प्रस्तावों के लिए होता है।

संसदीय प्रस्ताव:-

संसद सदस्यों द्वारा संसद में जो प्रस्ताव रखे जा सकते हैं, उनमें से कुछ प्रस्ताव तथा उनका आशय इस प्रकार है:
ध्यानाकर्षण प्रस्ताव :-अध्यक्ष की अनुमति से जब कोई संसद सदस्य किसी मंत्री का ध्यान सार्वजनिक हित की दृष्टि से अत्यावश्यक सार्वजनिक महत्व के विषय की ओर आकर्षित करता है, तो उसे ध्यानाकर्षण प्रस्ताव कहते हैं। ध्यानाकर्षण प्रस्ताव की सूचना सदस्य को प्रातः 10 बजे तक देनी होती है। अध्यक्ष या सभापति उसी दिन ध्यानाकर्षण प्रस्ताव की अनुमति दे सकता है या सम्बन्धित मंत्री को दूसरे दिन सदन की बैठक में वक्तब्य देने की अनुमति दे सकता है।
विशेषाधिकार प्रस्ताव :- यदि किसी मंत्री ने तथ्यों को छिपाकर या गलत जानकारी देकर संसद सदस्यों के विशेषाधिकार का हनन किया है तो संसद सदस्य मंत्री के विरूद्ध ’विशेषाधिकार प्रस्ताव’ रख सकते हैं।

कार्य स्थगन प्रस्ताव :-

जब कोई विशेष घटना घटित हो, या देश में कोई विशेष स्थिति उत्पन्न हो जाए तो इसे ही ’कार्य स्थगन प्रस्ताव’ या ’काम रोको प्रस्ताव’ कहते हैं। कार्य स्थगन प्रस्ताव किसी भी सदस्य द्वारा रखा जा सकता है और यदि 50 सदस्य इसका समर्थन करते हैं तो अध्यक्ष प्रस्ताव की अनुमति देते हैं। कार्य स्थगन प्रस्ताव की सूचना सदन की बैठक प्रारम्भ होने के पूर्व दी जानी चाहिए। अध्यक्ष कार्य स्थगन प्रस्ताव की अनुमति तभी देता है जबकि यह सार्वजनिक महत्व के निश्चित विषय से सम्बन्धित हो, इसका कोई तथ्यात्मक आधार हों तथा यह अत्यावश्यक प्रकृति का हो।

कटौती प्रस्ताव :-

बजट की मांगों में कटौती हेतु रखे गये प्रस्ताव को ’कटौती प्रस्ताव’ कहते हैं। कटौती प्रस्ताव को विचार के लिए स्वीकृति देने अध्यक्ष के स्वविवेक पर निर्भर करता है। कटौती पस्ताव तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें अलग-अलग उद्देश्यों से रखा जाता है। प्रथम, यदि सदस्य खर्च की एक विशेष मांग से जुड़ी नीति से असहमति व्यक्त करना चाहते हैं तो खर्च में एक रुपये की कटौती का प्रस्ताव रखा जाता है। यह कटौती प्रस्ताव का सबसे गंभीर रूप है। द्वितीय, कटौती प्रस्ताव इस आशय से लाया जा सकता है कि खर्च में मितव्ययता बरती जाय। इस प्रस्ताव में एक विशेष राशि की कटौती का प्रस्ताव लाया जाता है। तृतीय, शासन के उत्तरदायित्व से सम्बन्धित किसी विशेष विषय पर असंतोष व्यक्त करने के लिए कटौती प्रस्ताव लाया जा सकता है। इस प्रस्ताव में सामान्यतः 100 रु. की कटौती की बात कहीं जाती है। लोकसभा में ’कटौती प्रस्ताव’ पारित होने का मतलब होता है ’शासन के प्रति अविश्वास’ अतः शासन को त्यागपत्र देना होता है।

 निन्दा प्रस्ताव :-

शासन या किसी विशेष मंत्री द्वारा अपनाई गई नीति या उसके कार्यों की आलोचना करने के लिए ’निन्दा प्रस्ताव’ लाया जाता है। यह प्रस्ताव अविश्वास प्रस्ताव से दो रूपों में भिन्न होता है। प्रथम, अविश्वास प्रस्ताव मंत्रिपरिषद के विरुद्ध ही लाया जा सकता है, निन्दा प्रस्ताव किसी एक मंत्री या कुछ मंयिों के विरुद्ध भी लाया जा सकता है। द्वितीय, अविश्वास प्रस्ताव में मंत्रिपरिषद पर कोई भी विशेष आरोप नहीं लगाना होता, निन्दा प्रस्ताव में मंत्रिपरिषद या किसी मंत्री के विरुद्ध विशेष आरोप लगाने होते हैं या प्रस्ताव के लिये आधार बतलाने होते हैं प्रस्ताव नियमानुसार हैं अथवा नहीं, इसका निर्णय स्पीकर करता है। यदि स्पीकर निन्दा प्रस्ताव को विचार के लिए स्वीकार कर लेता है, तो शासन इस प्रस्ताव पर विचार के लिए तिथि और समय निश्चित करता है। यदि लोकसभा निन्दा प्रस्ताव पारित कर देती है, तो सामान्यतया मंत्रपिरिषद को त्यागपत्र देना होता है।

 अविश्वास प्रस्ताव:-

अविश्वास प्रस्ताव केवल लाकसभा की कार्यवाही के साथ ही जुड़ा हुआ है। मंत्रिपरिषद उसी समय तक अपने पद पर रहता है, जब तक कि उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त रहे। अविश्वास प्रस्ताव लोकसभा में विपक्षी दल या दलों द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए कोई भी विशेष कारण या आधार नहीं बतलाने होते। यदि स्पीकर सोचते हैं कि प्रस्ताव नियमानुसार है, तो वे स्वयं प्रस्ताव को सदन में पढ़ते हैं। यदि लोकसभा के कम-से-कम 50 सदस्य प्रस्ताव का समर्थन करते हें, तो अध्यक्ष अविश्वास प्रस्ताव को विचार हेतु स्वीकार करते हैं। विचार हेतु स्वीकार किये जाने के बाद 10 दिन की अवधि के भीतर प्रस्ताव को विचार हेतु लेना होता है। विचार हेतु समय का निर्धारण सामान्यतया ’कार्य मंत्रणा समिति’ करती है। सदस्यों द्वारा प्रस्ताव पर विचार किये जाने के बाद प्रधानमंत्री सरकार पर लगाये गये आरोपों का जवाब देते हैं। इसके बाद प्रस्ताव के प्रस्तावक को जवाब देने का अधिकार होता है। विचार पूरा होने के बाद स्पीकर प्रस्ताव को लोकसभा में मतदान के लिए प्रस्तुत करता है। यदि लोकसभा अपने बहुमत से अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दे, तो मंत्रिपरिषद (सरकार) को त्यागपत्र देना होता है।

विश्वास प्रस्ताव:

परम्परागत रूप में संसदीय व्यवस्था के अन्तर्गत केवल अविश्वास प्रस्ताव का ही प्रावधान होता है, ’विश्वास प्रस्ताव’ की स्थिति को केवल भारत की संसदीय व्यवस्था में ही अपनाया गया है। भारत में राज्यों के सतर पर तथा केन्द्रीय सरकार के सतर पर यह बात देखी गई है कि जब कभी इस बात पर संदेह होता है कि प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री को लोकसभा/विधानसभा के बहुमत का विश्वास प्राप्त है अथवा नहीं, तब राष्ट्रपति/राज्यपाल उन्हें सदन में अपना बहुमत प्रमाणित करने के लिए कहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री लोकसभा में विश्वास प्रस्ताव रखते हैं। प्रस्ताव प्रस्तुत करते समय प्रधानमंत्री शासन की उपलब्धियों का उल्लेख कर सकते हैं अथवा भविष्य के लिए योजना प्रस्तुत कर सकते हैं। सदन प्रस्ताव पर विचार करता है तथा इसके बाद प्रधानमंत्री शासन पर लगाये गये आरोपों का उत्तर देते हैं। प्रधानमंत्री के उत्तर के बाद प्रस्ताव सदन में मतदान के लिए रखा जाता है। यदि सदन विश्वास प्रस्ताव को बहुमत से अस्वीकार कर देता है, तो प्रधानमंत्री को त्यागपत्र देना होता है। इस प्रकार विश्वास प्रस्ताव प्रधानमंत्री प्रस्तुत करते हैं और इस प्रस्ताव पर अन्तिम वक्ता प्रधानमंत्री ही होते हैं।

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